ग़ालिब की वो ग़ज़ल जो उन्हें भी अज़ीज़ थी।

 

 

कहा जाता है कि ग़ालिब के शे'रों के पीछे एक दुनिया आबाद है, ऐसा यूँ ही नहीं कहा जाता है।आप जब ग़ालिब को पढ़ेंगे तो इस बात को समझ जायेंगे की ग़ालिब कितने जीनियस और अपने वक़्त से कितना आगे सोचने वाले शायर थे।ग़ालिब उर्दू शायरी के निज़ाम-ए-शम्सी (सूरज) की मानिन्द हैं जिनसे लाखों करोड़ो सितारे, कहकशाएँ, सय्यारे ज़िया पा रहे हैं और ता-क़यामत तक ज़िया पाते रहेंगे।आइये ग़ालिब की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल के पहले शे'र या'नी मतले पर बात करते हैं।

 

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

 

वैसे तो ग़ालिब की पूरी ग़ज़ल ही बहुत अहम ग़ज़ल है लेकिन हम सिर्फ़ मतले पर बात करते हैं।लेकिन उससे पहले आईये आपको वो बात बताऊँ जो ग़ालिब ने ख़ुद इस ग़ज़ल के बारे में कही है।जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब ख़ुद इस ग़ज़ल के बारे में एक ख़त में लिखते हैं।

 

 

"मैंने कभी भी अपनी ग़ज़लियात को लिखकर अपने पास नहीं रक्खा।नवाब ज़ियाउद्दीन ख़ाँ और नवाब हुसैन मिर्ज़ा जम'अ कर के रखते थे।इन दोनों के घर लूट लिए गए और इनके कुतुबख़ाने बरबाद कर दिये गये।चन्द दिन क़ब्ल एक फ़क़ीर जो कि ख़ुशगुलु भी था और ख़ुश-आवाज़ भी।इसने ये ग़ज़ल कहीं से ढूँढ़ निकाली।जब इसने मुझे बतलाया तो जी चाहा कि धाड़े मार मार के रोऊँ।उसने कहा कि मैं ये ग़ज़ल तुम्हें भेज दूँगा लेकिन इसके एवज व'अदा करो कि तुम मुझे ख़त लिख कर भेजोगे"।तो इस ग़ज़ल के बारे में जो ग़ालिब ने अपने ख़त में लिखा वो आपने पढ़ लिया।अब आप अन्दाज़ा लगायें कि ये ग़ज़ल कितनी क़ीमती है।अगर ये वाक़ई खो जाती तो कितना नुक़्सान हो जाता।और आप ग़ौर करें कि वो फ़क़ीर कितना साहिब-ए-ज़ौक़ है कि ग़ज़ल के एवज में ग़ालिब से ख़त लिखने की ख़्वाहिश रखता है।अस्ल में ख़त की बात आई है तो यहाँ ख़त पे भी मुख़्तसर सी बात करता चलूँ ।ग़ालिब ने लोगों को ये सिखाया की ख़त किस तरह लिखा जाता है।क्यूँकि इससे पहले जब ख़त लिखे जाते थे,तो ख़त के शुरु'आत में बहुत लम्बे चौड़े अलकाब और तकल्लुफ़ात इस्तेमाल किये जाते थे ।जैसे आली जनाब फ़लाँ फ़लाँ और ऐसे ही काफ़ी लम्बे अलकाब होते थे।तो इसकी जगह ग़ालिब ने आम बोलचाल में जैसे एक दूसरे से मुख़ातिब होकर बात करते हैं उस तरीक़े से ख़त लिखने का चलन शुरू'अ किया जो कि आज भी वैसा ही है।ख़ैर ख़ुतूत के त'अल्लुक़ से हम आगे कभी और तफ़्सील से बात करेंगे लेकिन अभी सिर्फ़ इस एक शे'र पे बात करते हैं।

 

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

 

इस शे'र में आप ग़ालिब की ख़ुद्दारी देखें, मिन्नत-कश के मा'नी होते हैं अहसानमन्द होना और मिन्नत-कश-ए-दवा का मतलब, दवा का अहसान मन्द होना।तो ग़ालिब यहाँ कह ये रहे हैं कि भई मैं दवा का बहुत अहसान मन्द हूँ कि दवा ने दर्द पे कोई असर नहीं दिखाया।अच्छा हुआ कि इस दवा से मेरे दर्द को आराम नहीं मिला और मुझे कोई सुकून नहीं मिला। अगर मैं इस दवा से ठीक हो जाता तो ये साबित हो जाता कि मेरा दर्द कितना छोटा है, जो फ़क़त दवा से ठीक हो गया।य'अनी मेरा ग़म बहुत छोटा है जो दवा से ठीक हो गया।और अगर ऐसा हो जाता तो मैं इश्क़ के मैदान में कितना पीछे रह जाता।और अगर मैं अच्छा नहीं हुआ तो ये बुरा बिल्कुल भी नहीं हुआ।ये शे'र छोटी बह्र का ज़रूर है लेकिन ये शे'र बहुत बड़ा है।मैं अक्सर यूँ भी हैरान रहता हूँ कि ग़ालिब के अश'आर का जवाब भी ग़ालिब के ही अश'आर में मिलता है।इसी शे'र के हवाले से ग़ालिब का एक शे'र देखें,

 

इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया 
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया 


अब इस शे'र की बात करें तो ग़ालिब ने इश्क़, ज़ीस्त और तबीअ'त का क्या ख़ूब चस्पां किया है। "इश्क़ से तबीअ'त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया" वो कह रहे हैं की मुझे इश्क़ करने के बा'द ही ज़िन्दगी का अस्ल मज़ा मिला है।वरना जब मुझे किसी से इश्क़ नहीं था तब मेरी ज़िंदगी कोई ज़िन्दगी ही नहीं थी। मेरी ज़िंदगी में कोई रौनक़ कोई मज़ा ही नहीं था।और इसी शेर के मिसरा-ए-सानी में कह रहे हैं कि "दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया"   या'नी इश्क़ एक ऐसा मरज़ है जिसकी कोई दवा ही नहीं है साफ़ साफ़ मिसरे में दिख रहा है की वो इश्क़ को लादवा कह रहे हैं।और ये भी कह रहे हैं कि दर्द की दवा तो है लेकिन ये इश्क़ ऐसा मरज़ है जिसकी कोई दवा ही नहीं है।इसी शे'र के हवाले से मीर का एक शे'र देखते हैं

 

उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया 
 देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया 

 

मीर का ये शे'र एक आशिक़ के दर्द और हालत को ख़ूब बयान कर रहा है।या'नी सारी तदबीरें उल्टी हो गईं दवा ने दर्द पे कुछ काम ही नहीं किया,और अच्छा ही हुआ कि काम नही किया वरना ये साबित हो जाता कि मीर इश्क़ के मैदान में बहुत पीछे हैं।और आख़िर देख तेरे बीमार का काम तमाम हो ही गया।मुज़्तर ख़ैराबादी का एक शे'र इसी के हवाले से,

 

ईसा से दवा-ए-मरज़-ए-इश्क़ न होगी 
   हाँ उन को कोई ढूँड के ले आए कहीं से 
   -मुज़्तर ख़ैराबादी

 

इसी शे'र के हवाले से जौन एलिया का एक शे'र,

 

चारासाज़ों की चारा-साज़ी से दर्द बदनाम तो नहीं होगा 
हाँ दवा दो मगर ये बतला दो मुझ को आराम तो नहीं होगा 
   -जौन एलिया

अलीम अख़्तर का एक शे'र इसी शे'र के हवाले से

दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए 
    ज़िंदगी बे-मज़ा न हो जाए 
   -अलीम अख़्तर


ग़ालिब के इसी शे'र के हवाले से आपको अनगिनत शे'र मिल जाएँगेऔर जितना भी आप शाइरों को पढ़ेंगे आप पाएँगे कि हर शाइर ने कहीं न कहीं ग़ालिब से इस्तिफ़ादा किया है, और बार बाज़ शोअरा हज़रात पे तो ग़ालिब का रँग ऐसे ग़ालिब आया है जैसे उनकी अपनी कोई शिनाख़्त ही नही है।

 

लेखक : आक़िब जावेद
खटीमा (उत्तराखंड)