हीरो बनाम विलेन: हमारी ज़िंदगी, एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म

आइए ख़ुद को एक सच्चाई से रूबरू कराते हैं - बात दरअसल ये है कि हमें आदत हो गई है दुनिया को सिर्फ़ हीरो बनाम विलेन के दृष्टिकोण से देखने की।

 

"विलेन" की आवश्यकता

 

 

देखें तो हमें अपने जीवन में विलेन की उतनी ही ज़रूरत होती है जितनी कि एक मछली को पानी की। हम इतने अच्छे हैं, कि हमें अपनी अच्छाई का प्रमाण देने के लिए एक बुरे चरित्र की तलाश रहती है। और जब हमें ऐसा कोई नहीं मिलता, तो हम उसे ख़ुद ही बना लेते हैं।

 

 

खेल और साहित्य: क्योंकि हर कहानी में "विलेन" होना चाहिए!

 

विराट कोहली और गौतम गंभीर, या फिर सलमान ख़ान और शारुख़ ख़ान - ऐसे ही बिग्ग बॉस के कई उदहारण हैं, हमारा मनोरंजन इन "दुश्मनियों" से ही तो सजता है। भले ही यह लोग शायद एक-दूसरे के बारे में सोचते भी न हों, लेकिन हमने अपने मनोरंजन के लिए उनके बीच एक महाभारत कर दी है।

 

ये तो हो गई ज़िंदा लोगों की बात हम नें अपनी इस बेवक़ूफ़ी का शिकार उन लोगों को भी कर लिया है जो अब इस दुनिया में नहीं है, जी सही सुना आप नें ग़ालिब को हीरो बनाने के लिए हमें एक अच्छे विलेन की ज़रुरत थी जो हम नें ज़ौक़ को विलेन बना कर पूरी करली है।

 

 

हमारा ये रवय्या हर मैदान में है हम जानवरों में शेर को जंगल का हीरो मानते हैं सो अब जानवरों में भी ज़रुरत थी एक विलेन की, उस विलेन की कमी पूरी की भेड़िये नें, लोगों की एक बड़ी संख्या है जो बिना किसी कारण के भेड़िये को एक बुरा जानवर समझती हैं, ख़ैर।

 

 

फिर आज का सोशल मीडिया! यहाँ तो हर कोई हीरो और हर कोई विलेन है। यहाँ हमने हर छोटे-बड़े मुद्दे को एक बैटलग्राउंड में बदल दिया है, हम नें अपने हीरो के ग्रुप और कम्युनिस्टीज़् बना लीं हैं, जिस के ज़रिये हम अपने साथियों के साथ विलेन के post पर जाकर उसके live पर जाकर उसे दिल भर कर गालियां देते हैं और फिर इस पर गर्व करते हैं।

 

मीडिया: हीरो वर्सेज विलेन का प्रोमोटर

 

और हां, हमारे प्रिय मीडिया को कैसे भूल सकते हैं? ये तो मानो 'हीरो-विलेन फ़ाइट' वाले ड्रामे के मुखिया हैं। एक छोटी सी घटना को ऐसे बढ़ा-चढ़ा के पेश करते हैं, जैसे किसी क्रिकेट मैच का फ़ाइनल हो। बस थोड़े "मसाले" की ज़रुरत होती है, और हम भी ना, अपना पॉपकॉर्न लेकर बैठ जाते हैं, 'मनोरंजन का महासंग्राम' देखने के लिए।

 

 

हमारी मानसिकता: मसालेदार कहानियों की खोज में।

 

 

अस्ल में, यह सब हमारी मानसिकता का परिचय है हमें लगता है कि हर किसी कहानी में एक 'विलेन' होना चाहिए। यहाँ तक कि हम अपने जीवन की साधारण घटनाओं को भी 'फ़िल्मी' बनाने की कोशिश करते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं के हम इस 'विलेन' के चक्कर में असली जीवन की सरलता और सुंदरता को भूल रहे हैं?

 

कुल मिलाकर, यह सोचने वाली बात है कि हम अपनी ज़िंदगियों को इतना फ़िल्मी क्यों बना देते हैं? क्या इसके बिना हमारी ज़िंदगी थोड़ी कम मनोरंजक लगती? या हम बस अपने आप को एक 'साहसिक और मसालेदार' जीवन की कल्पना में खो देना चाहते हैं।

 

ख़ैर, जब हम इस पहेली पर विचार कर रहे हैं, हमें शायद इस बात पर भी ग़ौर करना चाहिए कि क्या इस 'हीरो बनाम विलेन' के नैरेटिव से निकलने का वक़्त आ गया है। क्या हमें अपनी असली ज़िंदगियों में उस सुंदरता को नहीं पहचानना चाहिए जो इन 'मसालेदार' कहानियों के बिना भी मौजूद है? हमें शांति, प्रेम और सहयोग के मूल्यों को अपनाते हुए, हर इंसान में 'हीरो' खोजने की ज़रुरत है, ना कि 'विलेन'।

 

 

आख़िर ऐसा करने की ज़रूरत क्या है?

 

 

एक सवाल ये उठता है के आख़िर ऐसा करने की हमें ज़रुरत क्यों है? इसके कई जवाब हैं पहला और सब से आसान जवाब ये है की क्यों की ये मूर्खता पर आधारित सोच है, हमें एक बुद्धिमान व्यक्ति की त़रह़ सोचनें की ज़रुरत है न की बच्चों की त़रह़।

 

दूसरा जवाब इसका ये है के हम लोग इस हीरो बनाम विलेन पर इतना गंभीर हो जाते हैं के एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं, सोशल मीडिया पर लड़ाईयाँ शुरू हो जाती हैं गाली गलौज और कभी कभी तो हाथा पाई की भी नौबत आ जाती है, किसी खिलाड़ी की लड़ाई के चक्कर में आपस में जानवरों की त़रह़ लड़ना एक दूसरे की माँ बहनो को गन्दी गालियां देना क्या कोई बुद्धिमान व्यक्ति इस त़रह़ का हो सकता है? हमें गंभीर हो कर विचार करने की ज़रुरत है के क्या हम वाक़ई इतने बेवक़ूफ़ हैं, या बने हुए हैं?

 

 

निष्कर्ष

 

शायद वक़्त आ गया है कि हम फ़िल्मों और कहानियों की इस द्वैविधोपम (Dichroism) को तोड़ें और हमारे चारों ओर की दुनिया को एक नए नज़रिये से देखें। जहां 'हीरो' और 'विलेन' का कोई भेद नहीं, बस इंसान हैं जो एक दूसरे के साथ सहजीवन और सहानुभूति के साथ रहना चाहते हैं।

 

 

 

 

 

तो, आइए हम सब मिलकर ऐसी दुनिया का निर्माण करें जहाँ कहानियाँ सिर्फ़ प्यार, समझदारी और सहानुभूति की हों। जहां हर दिन एक नया अध्याय हो, लेकिन उसमें 'विलेन' की जगह 'हीरो' की तरह हर इंसान का योगदान हो। यह संभवतः साहसिक और मसालेदार जीवन की कल्पना से भी बेहतर और संतोषजनक होगा।

 

लेखक : अज़हान साक़िबी

 

 

बरेली (उत्तर प्रदेश)